26 फ़रवरी, 2009

जिन्दगी की इस दौड़ में

जिन्दगी की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है ?
जब यही जीना है दोस्तों तो फिर मरना क्या है ?

पहली बारिश में छाते की फ़िक्र है
भूल गए वो भीगते हुए टहलना?

धारावाहिक के किरदारों का सारा हाल है मालूम
पर माँ का हाल पूछने की फुर्सत नहीं है ?

अब घास पे नंगे पाव टहलते क्यों नहीं ?
१५० चॅनल फिर भी दिल बहलते क्यों नहीं ?

इन्टरनेट से दुनिया के तो सम्पर्क में है ,
लेकिन पड़ोस में कौन रहता है ख़बर तक नहीं .

मोबाइल , लैंड लाइन सब की भरमार है ,
लेकिन जिगरी दोस्त तक पहुचे ऐसे तार कहा है ?

कब डूबते हुए सूरज को देखा था ?
कब जाना था शाम का गुज़रना क्या है ?

सुबह उठ के कब सुना था चिडियों का चहकना ,
अलार्म के बजाने पर सुबह का पता चलता है ।

कब खाया था आराम से बैठ के भूल गए .
वो माँ के हाथो से खाना याद है ?

वो दोस्तों के साथ दिन गुजारते थे .
आज खुद के लिए वक़्त नहीं है .

तो दोस्तों जिन्दगी की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है
जब यही जीना है तो फिर मरना क्या है ?

5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह वाह आलोक जी
    कितने पैने पन से देखा है रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को. बहुत अच्छी रचना बना दी ताज़ा हालत पर.

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  2. "कब खाया था आराम से बैठ के भूल गए .
    वो माँ के हाथो से खाना याद है ?"
    ना भूलने वाली लाइन आलोक जी

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  3. वाह वाह आलोक जी..
    क्या खूब क्या खूब छापा है..'लगे रहो मुन्नाभाई' फिल्म से उठाकर...अब छाप दिया तो कोई बात नहीं पर उस फिल्म का ज़िक्र तो कर देते ताकि बाकी लोगों को ग़लतफ़हमी नहीं होती || कभी कभी इस तरह की हरकतें अपनी स्वं की रचनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगा देती हैं....आपने वो 'भेडिया आया-भेडिया आया' वाली कहानी तो सुनी होगी......

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  4. बहुत बढिया. कोमल भाव्नओं की सुन्दर अभिव्यक्ति है.

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  5. शोभित जी आपने सही कहा की ये रचना मुन्ना भाई से प्रभवित है पर यह पूर्ण रूपेण नक़ल नहीं है इस रचना में मेरे स्वयं के छंदों का प्रयोग हुआ है , जो मैं देख और महसूस कर रहा हूँ .

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