03 फ़रवरी, 2009

सुख-दुःख (एक सवाल )

मेरा गाँव प्रतापगढ़ जिले के पट्टी तहसील में पड़ता है मैं वही की एक घटना आप के सामने रखने जा रहा हूँ . मेरे गाँव में एक परिवार में दो पुत्र थे , बड़े का नाम दान बहादुर और छोटे का नाम समर बहादुर . माता-पिता की मृत्यु के बाद दोनों अलग हो गए .दान बहादुर खेती करते थे और समर बहादुर लेखपाल थे. दान बहादुर के तीन पुत्र है और समर बहादुर के दो पुत्र .

दान बहादुर ने खेती करके अपने बच्चो को पढाया और समर बहदुर के पास पैसे की कोई कमी नही थी पेशे से लेखपाल जो थे. दान बहादुर का बड़ा बेटा इंटर कालेज में अध्यापक हो गया, मझला होम्योपैथी की पढ़ाई करके एक नर्सिग होम का मालिक है, छोटा बेटा कोपरेटिव बैंक में कलर्क हो गया. इधर समर बहादुर के दोनों पुत्र इलाहबाद में आई. ऐ. एस.- पी.सी.एस. की तैयारी कर रहे थे लेकिन कई साल गुज़र जाने के बाद भी कुछ नही कर पाये .

जैसा की आप जानते है कि आदमी अपने दुःख से दुखी नही है दुसरे के सुख से दुखी होता है. वही हाल समर बहादुर का हुआ वो अपने बड़े भाई के पुत्रो को देख कर दुखी रहने लगे. दान बहादुर के पुत्रो ने गाँव में एक बड़ा पक्का मकान बनवा दिया एक बुलेरो गाड़ी खरीद ली. समर बहादुर भी कहाँ पीछे रहने वाले थे उन्होंने भी रिटायर्मेंट के मिले पैसे और बाज़ार की जमीन बेच कर एक पक्का मकान बनवाया और गाड़ी ले ली.

कुछ साल हुए दान बहदुर का बड़ा बेटा सुल्तानपुर जिले में अपना मकान बना कर अपने परिवार के साथ रहने लगा, मझला भी इलाहबाद में अपने परिवार के साथ रहने लगा. गाँव पर दान बहादुर का छोटा बेटा अपने परिवार के साथ रहता था पर उसकी पत्नी ने कहा जब उसकी जेठानी लोग गाँव में नही रहना चाहती हैं तो फिर वो क्यों रहे उसे भी शहर में रहना है बच्चो को कान्वेंट स्कुल में पढ़ना है. जब घर में कलेश ज्यादा हो गया तो दान बहादुर ने उसे भी शहर जा के रहने को कह दिया. छोटा बेटा अपना परिवार ले के लखनऊ में जा के बस गया.

उधर समर बहादुर के दोनों पुत्र इलाहबाद से वापस गाँव आ गए. बड़ा बेटा गाँव में ही एक स्कुल चलाने लगा और छोटा खेती का काम देखने लगा. दोनों बेटे की पत्निया गाँव में रहती है और सास-ससुर की सेवा कर रही है .

अब दान बहादुर के घर में दोनों पति-पत्नी के अलावा कोई नही है दोनों लोग ७०-७५ की उमर में ख़ुद बनाते-खाते है, बेटे आते है गर्मियों की छुट्टी में अपने बच्चो के साथ कुछ दिन रहते है और जाते समय गेहूं , चावल, चना जो भी कुछ होता है ले जाते है।

अब बेचारे दान बहादुर दुखी है अपने छोटे भाई का सुख देख के, कि उसके बेटे-बहुएं घर पर रह के उनकी सेवा कर रहें है और यहाँ तीन होने पर भी ख़ुद बनाना-खाना पड़ रहा है।

मेरे मस्तिष्क में एक बात ये घुमती है आखिर ऐसा क्यों हो रहा हैं हमारे आस पास जिनके बच्चे पढ़ लिख के अपने पैरो पर खड़े हो जाते है अपने माँ - बाप को छोड़ कर चले जाते है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. मित्र सोचने पर मजबूर कर दिया. विषय बहुत ही रोचक लगा.
    धन्यवाद

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  2. मजबुरी होती है, मै भी अपने मां बाप को छोड कर, या यु कहे की उन की मर्जी से इतनी दुर आ गया, अब ना तो मै हमेशा वापिस जा सकता हुं, ना मां बाप ही मेरे पास आ सकते है, अब इस मै किस का कसूर?? आज के समय मै हम सब मजबुर है, उन की किसमत ही है जो सब इकट्टे रहते हे, लेकिन दोनो के अलावा जो भाई गाव मै रहता था, उस की तो कोई मजवुरी नही, उसे तो मां बाप के पास रहन चाहिये था ??
    धन्यवाद आप ने बहुत सुंदर लिखा.

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  3. व्यवहारिक सोच के साथ रोचक विषय है। इन दोनों परिवारों की विवेचना आप इस तरह कर सकते हैं कि हर सुख के साथ कुछ दुख भी जुडा है। दान बहादुर के बच्चों के नसीब में शहरी सुख था सो वे उसे भोग रहे हैं। अपना जीवन यापन कर रहे हैं। निगेटिव बात ये हुई कि मां बाप गाँव में अकेले रह गये। दूसरी ओर समर बहादुर के यहाँ के बच्चों के मन में यह अभिलाषा तो है कि कहीं कमा खा लेते तो वह भी शहरी सुख लेते। कहां इधर गांव में पडे-पडे सड रहे हैं। और आज नहीं तो कल समर बहादुर के पोतों के मन में यह बात जरूर उठेगी कि काश उनके बाप यानि समर बहादुर के बेटे भी शहरों में होते तो उन्हें भी नौकरी-चाकरी, बोल-चाल में आगे चलकर सुभीता हो जाता। तो आलोक जी, कुल मिलाकर जो जहां है उसे वहीं कुछ न कुछ कमी और अधिकता को झेलना पडेगा। वैसे आज हर दूसरे परिवार में यह घटना और इससे जुडे पात्र देखने में मिलेंगे।
    अच्छी पोस्ट।

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